loving poetry

Sunday 20 May 2012

मिल गया था जो मुकद्दर, वो खो के निकला हूँ
मैं एक लम्हा हूँ , हर बार रो के निकला हूँ
राहे दुनिया मैं मुझे कोई भी दुश्वारी नहीं
मैं तेरी जुल्फ के पेचों से होके निकला हूँ

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