loving poetry

Sunday 20 May 2012

कभी खुद को मैं ढूंढूं इस तरफ इक बार, ऐसा हो
निगाहे-रूह तुझ पर हो टिकी उस पार, ऐसा हो

मैं राहे-जिन्दगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
वो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो

वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो

बहुत दिन से तुझे मैं दूर से ही चाहता हूँ, अब
लगूं खुल के गले तुझसे सरे-बाज़ार, ऐसा हो

किनारे पर खड़े हो कर तमाशा देखने वाला
कभी आके यहाँ हमसे मिले मंझधार, ऐसा हो

मेरे नगमे रहें ज़िंदा, भले ही नाम मिट जाये
फ़क़त मशहूर हो मुझमें छिपा फनकार, ऐसा हो .

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